पहले गर्भ में उत्पन्न लड़के या लड़की का विवाह उसके जन्म मास, जन्म नक्षत्र या जन्म तिथि में नही करना चाहिए। यदि माता का पहला गर्भ नष्ट हो गया हो तब यह विचार करने की आवश्यकता नहीं है। जन्म मास के सन्दर्भ में मुहूर्तशास्त्रियों के दो मत हैं, कुछ तो जन्म के चान्द्रमास को जन्म मास मानते हैं और कुछ जन्म दिन से लेकर तीस दिन के अवधि को जन्म मास माना जाए। ज्येष्ठ लड़के और ज्येष्ठ लड़की का परस्पर विवाह ज्येष्ठ मास में नहीं करना चाहिए। पुत्र के विवाह के 6 माह के भीतर पुत्री का विवाह नहीं करना चाहिए। पुत्री का विवाह करने के बाद पुत्र का विवाह कभी भी किया जा सकता है।
एक वर्ष में सहोदर भाई अथवा बहनों का विवाह शुभ कारक नहीं ,वर्ष भेद में और संकट में कर सकते हैं ।समान गोत्र और समान प्रवर वाली कन्या के साथ विवाह निषिद्ध है ।
नान्दी श्राद्ध के प्रथम रजोदर्शन होने पर ”श्री शान्ति ” करके विवाह करना चाहिए ।वर -वधू की माता के ”रजस्वला ” अथवा संतान होने पर ”श्री शान्ति ” करके विवाह हो सकता है । विवाह में अशौच की संभावना हो तो अशौच के प्रथम अन्न का संकल्प कर देना चाहिए । फिर उस संकल्पित अन्न का दोनों पक्ष के मनुष्य भोजन कर सकते हैं ,उसमें कोई दोष नहीं है ।परिवेषण (परोसना) असगोत्र के मनुष्यों को करना चाहिए ।
विवाह में वर-वधू का ”ग्रंथिबंधन कन्यादान के पहले ही शास्त्र सम्मत है ,कन्यादान के बाद नहीं । कन्या दाता का अपनी स्त्री के साथ ग्रंथि बंधन कन्यादान के प्रथम होना चाहिए । दो कन्याओं का एक समय विवाह हो सकता है परन्तु एक साथ नहीं ,किन्तु एक कन्या का वैवाहिक कृत्य समाप्त होने पर द्वार -भेद और आचार्य भेद भी हो सकता है ।
यदि कन्या की जन्म कुण्डली में सप्तमेश ग्रह के साथ शनि स्थित हो तो ऐसी कन्या का विवाह दीर्घकाल में होता है। यदि सूर्य मंगल बुध लग्न मे गुरू द्वादश भाव में हो तो कन्या का विवाह दीर्घकाल में होता है। पंचम भाव में मंगल तथा आठवें भाव में बुध गया हो ऐसी स्त्री काक वन्ध्या होती है। यदि पंचम भाव में धन या मीन राशि हो तथा गुरू पंचम भावस्थ हो या पंचम भाव में क्रूर ग्रहों की दृष्टि हो तो इस प्रकार के योग में उस स्त्री की उपाय से संन्तान होती है।